वक्त़ भी खूब अच्छी बिरयानी बना लेता है।
किसी को मसालों की तरह,
तो किसी को चावल की तरह,
इस्तेमाल कर, मौत को परोस देता है।
मैं भी शायद पानी की कुछ बूंदो में से एक हूँ।
छिड़क दिया जाऊंगा,
गर्म तवे पर,
एक आह निकलेगी,
आवाज़ आएगी,
लगेगा फुलझड़ियाँ जल रही हो,
उसीके साथ घुल जाऊंगा, तवे में।
गर्म तवा, क़ब्रस्तान हो मानो।
तेल की मिट्टी ही नसीब होगी मुझे।
वक्त़ भी बड़ा असामी लगता है।
मुझ जैसी कुछ पानी की बूंदो का,
चावल के दानों का,
मसालों का,
बखूबी इस्तेमाल कर लेता है।
वो उठा ले जाता है, हम मना भी नहीं कर पाते।
परोस देता है, हम जैसो का वज़ूद, मौत को।
हमारा अक्स भी बिरयानी की शक्ल अख्त़ियार कर लेता है आखिर….